हमारी कहानियों

26 साल की उम्र में सुधा की शादी दिनेश के साथ की गई 
जब सुधा की शादी फिक्स की गई थी तब वह पढ़ाई कर रही थी पर उम्र निकालने के साथ ही हम इसकी शादी की चिंता होने लगी थी आपको बता दूं सुधा मेरी ही बेटी है 
जब दिनेश हमें मिले तो हमें बताया गया था कि वह एक जर्नलिस्ट है मुझे तो पहले पता ही नहीं था जर्नलिस्ट क्या होता है जर्नलिस्ट माने वही जो पेपर में न्यूज़ छापते हैं मुझे सिर्फ इतना ही पता थे 

लेकिन बाद में मुझे पता चला जब सुधा के पापा ने मुझे बताया की जर्नलिस्ट की काफी पहुंच होती है इनका काम सिर्फ पेपर में न्यूज़ छापना नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ होता है 

और इस बात पर मुझे यकीन तब हो गया जब शादी के कुछ समय बाद सुधा की तबीयत खराब होती है एक फोन पर ही शहर के सबसे अच्छे डॉक्टर मेरे बेटी और दामाद के घर पर थे 
हम कहीं घूमने जाते या कहीं दर्शन करने जाते तो हमें कभी लाइन लगाना नहीं पड़ता था हम भीड़ का हिस्सा नहीं रहते थे हमें हर वीआईपी ट्रीटमेंट मिलता था 

मेरा यकीन पुख्ता और तब हो गया जब एक रात मेरे पति को हार्ट अटैक आया मैंने झट से सुधा को फोन लगाया और फोन लगाने के 15 मिनट के भीतर ही मेरे घर के बाहर एंबुलेंस एक डॉक्टर और दो अटेंडेंट खड़े थे जिन्होंने तुरंत ही मेरे पति को अस्पताल पहुंचाया लेकिन भगवान को कुछ और मंजूर था हमने अपने पति को खो दिया 

मेरे पति की मृत्यु के बाद मैं अपनी बेटी सुधा के साथ रहने चली गई वहां जाने पर मुझे पता चला शहर में कहीं पर भंडारा हो तो अपने घर खाना बनाने का जरूरत नहीं होता था शहर में कोई सेलिब्रिटी आ रहा हो तो बिना किसी पेपर या पास के हम सीधा उनसे मिल सकते थे 

शहर में यदि कोई मेला लग रहा हो तो बिना टिकट लिए बड़ी ही आसानी के साथ हम अंदर चले जाते थे और यदि कभी टिकट ले भी लिया तो मेले का ऑर्गेनाइजर झट से हमारे पैसे लौटता था 

मुझे बहुत गर्व होता है अपने बेटी और दामाद पर और कम से कहीं ज्यादा गर्व होता है अपने पति पर कि उन्होंने एक ऐसा हीरा जैसा दामाद हमारे लिए खोज 
और हम दोनों से कहीं ज्यादा गर्व दिनेश के माता-पिता को उनके ऊपर था 

सुधा ने मुझे बताया कि मां मेरे पति की तनख्वाह ज्यादा नहीं है कमाई भी कोई खास नहीं है पर मोटे खर्चे से हम लोग बच जाते हैं इसलिए जितना भी आता है वह हमारे लिए काफी है 

कुछ साल बाद सुधा को बेटी होती है और हम लोग फिर से एक बार खुशी के माहौल में डूब जाते हैं 
कुछ साल मुझे बेटी बड़ी होती है तो उसका नाम स्कूल में लिखा जाता है स्कूल भी कोई छोटा-मोटा नहीं था शहर का सबसे बड़ा स्कूलथा 

मुझे आज भी याद है कि जब स्कूल में एडमिशन हुआ उसके दो दिन बाद ही स्कूल के प्रबंधक ने दिनेश को बुलाया और उन्हें बोला फीस देने की कोई जरूरत नहीं है आप सिर्फ रजिस्ट्रेशन चार्ज दीजिए 

ऐसा इसलिए नहीं कि वह पत्रकार थे बल्कि पत्रकार होने के साथ-साथ शहर में उनका नाम था कोई भी गरीब यदि वह किसी तरीके से परेशान है तो मेरे दामाद पूरी कोशिश किया करते थे कि उसकी सहायता कीजाए 

लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था एक रात रिपोर्टिंग करने के दौरान एक तेज रफ्तार गाड़ी ने दिनेश को धक्का मार दिया 

उनके मीडिया हाउस के कर्मचारियों ने तुरंत उठाकर उन्हें शहर के सबसे बड़े अस्पताल लेकर क्या है जो की एक ट्रॉमा सेंटर था 

जहां पर उन्हें एडमिट करते ही डॉक्टर ने रिपोर्ट देखी और बोला इन्हें बचाना मुश्किल है क्योंकि इनकी रीड की हड्डी पूरी तरीके से चूर हो चुकी है अगर यह बच भी जाते हैं तो जिंदा लाश रहेंगे 
जिसे सुनने के बाद मेरा कलेजा बैठ गया था 

अभी रिपोर्ट आएगी थी तभी शहर के बड़े अधिकारियों का फोन अस्पताल में आने लगा कि जल्दी से जल्दी इनका इलाज शुरू किया जाए 

आप में से कुछ लोगों को हो सकता हो यह बात बनी हुई लगे या झूठ लगे पर जो लोग के घर में एक वेरीफाइड पत्रकार है वह इस बात को भली-भांति समझते होंगे 

तीन दिन ट्रॉमा सेंटर में रहने के बाद दिनेश की मौत हो जाती है 
दिनेश अपने पीछे एक जवान पत्नी एक छोटी बेटी और दो बूढ़े मां-बाप छोड़कर जाते हैं 
दिनेश की मौत पर जिले के सभी बड़े अधिकारी आते हैं सभी बड़े नेता आते हैं फोटो खिंचवाते हैं कुछ नहीं तो यहां तक कहा कि दिनेश की बेटी उनकी बेटी है और उनकी पढ़ाई की आगे की जिम्मेदारी वह खुद उठाएंगे 

जिसे सुनने के बाद मुझे ऐसा महसूस होता था कि मानो दिनेश नहीं है पर उनके बनाए हुए व्यवहार आज भी जिंदा है 

लेकिन सच्चाई यहां पर यह है आदमी कितना भी अच्छा व्यवहार बना ले जिस दिन उसकी मृत्यु होती है उसके सारे व्यवहार उसी के साथ चले जाते हैं 

दिनेश की मृत्यु के 6 महीने बाद हमारे घर कोई भी नहीं आता स्थिति यह रहती है की खान की भी समस्या होने लगती है 

पहले जो लोग दिनेश के एक फोन करने पर राशन की बोरियां पहुंच करके ले जाते थे आज के दिन वह सुधा का फोन ही नहीं उठाते 

काफी समय तक सुधा और उसके परिवार के लोगों ने फाइनेंशली दिक्कतों का सामना किया 

और 2 साल बाद सुधा ने अंत में हार मानकर एक प्राइवेट स्कूल में मात्र ₹15000 की नौकरी की 

शुरुआत में मैंने कहा था की सुधा की पढ़ाई छुड़ा करके हमने उसकी शादी कर दी क्योंकि उसकी उम्र निकल रही थी 

अब इस बात का पछतावा मुझे जिंदगी भर होता है अगर सुधा की पढ़ाई पूरी हुई होती तो उसे किसी छोटे स्कूल में 15000 की नौकरी करने की जरूरत नापड़ती 

इस पेज पर मैंने कई लोगों की स्टोरी अच्छी है और स्टोरी पर बहुत सारे लोगों ने गलत कमेंट करते हुए यह बोला है की पढ़ाई और कैरियर के चक्कर में लोगों की उमर निकलती जा रही है 

पर मैं सभी लोगों से यह कहना चाहूंगी उम्र निकल रही हो या ना निकल रही हो आपकी बेटी इतनी सक्षम होनी चाहिए कि यदि कल को उसका पति ना रहे तो भी उसे खाने के लिए मोहताज न होना पड़े भले ही आप कितने बड़े घर से हो लेकिन आत्मसम्मान की रोटी अपने ही कमाई से मिलती है 

जो दिनेश की एक फोन पर सारा काम कर जाते थे आज के दिन सुधा का हाल पूछने नहीं आते हमारा पूरा परिवार दिनेश के भरोसे था और दिनेश के ऊपर पूरी तरीके से निर्भरथा 

पर दिनेश के जाने के बाद हमारा परिवार टूट गया 
मैं उन सभी मानों से गुजारिश करना चाहती हूं जो यह सोचती है कि पढ़ लिखकर बेटी क्या करेगी तो उसका जवाब यही है भगवान ना करें जैसा मेरी बेटी के साथ हुआ है वैसा किसी और की बेटी के साथहो 

पर भविष्य कोई नहीं जानता हमें इतना सशक्त बनाना चाहिए अपनी बेटी को कि कल को यदि उसके सपोर्ट में कोई भी ना रहे तो भी वह दो वक्त की रोटी जुटा करके सम्मान के साथ खा सके 

जिन लोगों को मेरी इस बात से आपत्ति है वह कमेंट में अपनी आपत्ति जाहिर कर सकते हैं और जो लोग मेरी बात से पूरी तरीके से सहमत है वह जरूर कमेंट करके बताएं

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